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माता-पिता को बच्चों से दूर कर रहा मोबाइल: घरों में बढ़ रहा क्लेश, प्रतिष्ठित स्कूलों के काउंसिलिंग सत्र में सामने आए गंभीर तथ्य


माता-पिता को बच्चों से दूर कर रहा मोबाइल: घरों में बढ़ रहा क्लेश, प्रतिष्ठित स्कूलों के काउंसिलिंग सत्र में सामने आए गंभीर तथ्य

लखनऊ:-एक मोबाइल फोन ने सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है। समस्या कितनी गंभीर होती जा रही है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अभी तक पति-पत्नी में दरार का कारण बन रहा मोबाइल फोन अब माता-पिता को बच्चों से दूर कर रहा है। रोक-टोक और अनदेखी से घरों में क्लेश बढ़ रहा है। इस साल जबसे स्कूल खुले हैं, तबसे लेकर मार्च तक में शहर के छह प्रतिष्ठित स्कूलों में अलग-अलग काउंसिलिंग सत्र के दौरान कई गंभीर समस्याएं सामने आई हैं। मुस्कुराएगा इंडिया सेंटर की प्रभारी और जेएनपीजी कॉलेज में शिक्षा विभाग की प्रमुख एसोसिएट प्रो. रश्मि सोनी ने इसकी रिपोर्ट और सामने आए मुद्दे अमर उजाला से साझा किए।

3600 विद्यार्थी, 400 अभिभावक व शिक्षक, पर समस्या एक

प्रो. रश्मि सोनी ने बताया कि छह स्कूलों के 3600 बच्चों के साथ सत्र लिया गया। इसमें मौजूद बच्चों की उम्र 10 से 17 साल थी। इस दौरान 100 अभिभावक और 300 शिक्षक व स्कूल प्रबंधन के पदाधिकारियों से संवाद किया गया। लगभग सभी अभिभावकों और शिक्षकों ने एक जैसी समस्याएं बताईं।

बच्चे बोले- हमें तो ‘बुली’ करते हैं टीचर-अभिभावक

सेशन के दौरान छोटे बच्चे तो समस्या बताते नहीं, उनके बारे में अभिभावक और शिक्षक-शिक्षिकाओं से पूछना पड़ता है। बड़े बच्चों का कहना है कि हमें कोई समझना नहीं चाहता। माता-पिता खिझलाते बहुत हैं। हर बात में टोकाटाकी करते हैं। हमें घर या स्कूल में बुली किया जाता है।

संवाद ही समाधान है

डॉ. रश्मि सोनी कहती हैं कि संवाद ही एक मात्र जरिया है, जिससे हम अभिभावक व बच्चों के बीच की दूरी कम कर सकते हैं। मोबाइल फोन का ज्यादा इस्तेमाल पहले बड़ों को कम करना होगा। स्क्रीन टाइम कम हो इसके लिए जरूरी है कि बड़े आदत बदलें। बच्चों के साथ धैर्य से पेश आएं। स्कूल में शिक्षकों को भी धैर्य से काम लेना होगा। बच्चों को माहौल के साथ संतुलन बनाना सिखाना होगा।

अभिभावकों का दर्द

शिक्षकों के अपने तर्क और समस्या

-इस बार जो बच्चे स्कूल आए हैं, लगता है कि सब भूल चुके हैं। हमें शून्य से शुरुआत करनी पड़ रही है।
-बच्चे लिखना ही नहीं चाहते। बैठने की तो जैसे आदत ही नहीं रही।


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